जलवायु संकट से भारत के असंगठित श्रमिकों पर बढ़ रहा दबाव।

नई दिल्ली: भारत में जलवायु संकट का सबसे बुरा प्रभाव उन लाखों अनौपचारिक श्रमिकों पर पड़ रहा है, जो देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं, लेकिन जिन्हें न तो पर्याप्त छाँव मिलती है, न कोई आश्रय और न ही उनके अधिकारों की कोई सुरक्षा है। विशेषज्ञों का कहना है कि ये श्रमिक, जो जलवायु परिवर्तन में सबसे कम योगदान देते हैं, फिर भी इसके सबसे गंभीर प्रभावों का सामना कर रहे हैं और उन्हें तत्काल देखभाल और शहर-स्तर पर गर्मी से अनुकूलन के उपायों की आवश्यकता है।
भीषण गर्मी की लहरें, अप्रत्याशित बाढ़ और अन्य चरम मौसमी घटनाएं इन श्रमिकों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन गई हैं। निर्माण मजदूर, रिक्शा चालक, फेरीवाले, घरेलू कामगार और कृषि श्रमिक जैसे लोग अक्सर खुले आसमान के नीचे या अस्थाई ढाँचों में काम करते हैं, जिससे वे सीधे तौर पर अत्यधिक तापमान और प्रदूषित हवा के संपर्क में आते हैं। उनके पास स्वास्थ्य बीमा, उचित वेतन या सामाजिक सुरक्षा का अभाव होता है, जिससे वे इन पर्यावरणीय झटकों के प्रति और भी अधिक संवेदनशील हो जाते हैं। उनकी कमाई अक्सर मौसम की स्थिति पर निर्भर करती है, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति और बिगड़ जाती है।
विशेषज्ञों ने सरकार और शहरी नियोजनकर्ताओं से आग्रह किया है कि वे इन श्रमिकों की दुर्दशा पर तत्काल ध्यान दें। इसमें शहरों में पर्याप्त सार्वजनिक आश्रय स्थल, पेयजल की उपलब्धता, गर्मी के घंटों में काम के नियमन और स्वास्थ्य सेवाओं तक उनकी पहुंच सुनिश्चित करना शामिल है। दीर्घकालिक समाधानों में जलवायु-अनुकूल कार्यस्थल बनाना, सामाजिक सुरक्षा जाल को मजबूत करना और श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा करना शामिल है। यह आवश्यक है कि जलवायु अनुकूलन रणनीतियों में अनौपचारिक श्रमिकों की जरूरतों को प्राथमिकता दी जाए ताकि वे इस बढ़ते संकट से बचे रह सकें।