ल्युपस: जब शरीर की सुरक्षा प्रणाली ही बन जाए खतरा

रांची, 11 मई: ल्युपस, जिसे मेडिकल भाषा में सिस्टेमिक ल्युपस एरिथेमेटोसस (SLE) कहा जाता है, एक गंभीर ऑटोइम्यून बीमारी है।
इस बीमारी में शरीर की रक्षा प्रणाली ही खुद के ऊतकों और अंगों पर हमला करने लगती है।
इसे एक उदाहरण से समझिए — जैसे घर का वफादार कुत्ता पागल होकर अपने मालिक पर ही झपट पड़े।
ल्युपस होने के कई कारण हो सकते हैं जैसे—प्रदूषण, कोरोना जैसे वायरस, केमिकल का असर, UV किरणें और केमिकल युक्त फास्ट फूड।
इसका सबसे पहला और सामान्य लक्षण होता है – चेहरे पर तितली के आकार का लाल चकत्ता, जिसे मैलर रैश कहा जाता है।
साथ ही बाल झड़ना, मांसपेशियों और जोड़ों में दर्द, थकावट, बार-बार गर्भपात और अंगों में सूजन इसके प्रमुख संकेत हैं।

ल्युपस में शरीर का फैगोसाइटिक सिस्टम यानी “सफाई कर्मचारी” कमज़ोर हो जाता है।
इससे मृत कोशिकाएँ चेहरे पर जमा हो जाती हैं और जब यह सूरज की किरणों से संपर्क में आती हैं, तो समस्या और बढ़ती है।
इस स्थिति में इम्यून सिस्टम भ्रमित हो जाता है और शरीर के खिलाफ ही ANA और Anti-dsDNA जैसी ऑटोएंटीबॉडी बनाने लगता है।
ये एंटीबॉडी धीरे-धीरे किडनी, फेफड़े, मस्तिष्क और हृदय को नुकसान पहुँचाने लगती हैं और यह बीमारी बेहद गंभीर हो जाती है।
लेकिन यदि हम शुरुआत में ही चेहरा धूप से बचाएं, टोपी, हिजाब, सनस्क्रीन या छतरी का उपयोग करें तो इससे बचाव संभव है।
बचाव ही सबसे बड़ा इलाज है — यही संदेश लेकर झारखंड रुमेटोलॉजी एसोसिएशन ने एक जनजागरूकता कार्यक्रम का आयोजन किया।

कार्यक्रम में प्रोफेसर (डॉ.) आर. के. झा, डॉ. बिंध्याचल गुप्ता, अंजलि बेदिया और सम्मी भगत जैसे मरीजों ने भाग लिया।
उन्होंने ल्युपस से जुड़े लक्षणों और उससे निपटने के अनुभव साझा किए और लोगों को समझाया कि समय पर पहचान कैसे की जाए।
झारखंड रुमेटोलॉजी एसोसिएशन के फाउंडर सचिव डॉ. देवनीस खेस ने बताया कि प्रारंभिक सतर्कता से इस बीमारी को रोका जा सकता है।
उपस्थित लोगों ने भी इस बीमारी पर सवाल किए और विशेषज्ञों ने उनके सभी प्रश्नों का सरल भाषा में उत्तर दिया।
संस्था ने बताया कि भविष्य में भी ऐसे जागरूकता कार्यक्रमों के माध्यम से जनहित में काम किया जाएगा।
इस पहल से आम लोगों में ल्युपस के प्रति जागरूकता बढ़ रही है और यह एक सराहनीय कदम है।

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